Tuesday, August 14, 2012
Independence Day
एक शाम की बात
न मनोवैज्ञानिक , या अध्यापिका की नज़र से
वर्णन कर रही हूँ।
बस आम आदमी के कलम से
लिख रही हूँ।
क्या पाया , क्या खोया
हमने और देश ने
स्वतन्त्र भारत के इस पर्व पे सोच रही हूँ।
देखती हूँ , की शहर की सीमायें
गाँव छू रहीं हैं
और उनके आगन बुद्धे और सूने
हो गये हैं।
बहुत सारे माल पाए हैं
शहर ने ,
और उन्हें आबाद करने के लिए
नौजवान खोये हमने।
माल के बाथरूम में विदेशी
कपडे पहेंते , और दुकानों की
mannequin से होड़ करती लड़कियां.
बाँहों में हाथ डाले यहाँ के युवा
न दर है यहाँ किसी पंचायत, या खप का।
पर सोचती हूँ क्या , अंग्रेजी गाने की गूँज
कहीं दबा न दे स्वतंत्रता की हूक
और विलायती मुखोटे की पीछे
संस्कृति न तोड़ दे दम.
और बाहर सडकों पर कुछ
और आलम है.
बड़ते हुआ कचरे के ढेर
खाली पन्नियाँ गुटके और चिप्स के
दीवारों और सीढ़ियों पर
तम्बाकू और पान के धब्बे .
गाढ़ी काली उबलती नालियाँ .
राजधानी मैं रहती हूँ
वास्तविकता का वर्णन कर रही हूँ
इसके लिए कोई नेता नहीं है
जिम्मेदार .
यह सब हम आम लोगों की है बात
स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहेले
की शाम की बात
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